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दीसा हाथियों की उस रहस्यमयी भाषा में चिल्लाया, जिसके बारे में कुछ महावतों का मानना है कि वह दुनिया के जन्म के समय चीन से आई थी, जब इनसान नहीं, हाथी मालिक थे। मोती गज उस आवाज को सुनकर वहाँ पहुँच गया। हाथी चौकड़ी नहीं भरते। वे अलग-अलग रफ्तार से अपने स्थानों से चलते हैं। अगर कभी हाथी कोई एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ना चाहे, तो वह चौकड़ी नहीं भर सकता, मगर वह ट्रेन पकड़ सकता है। इस तरह इससे पहले कि चिहुन गौर कर पाता कि मोती गज अपने ठिकाने से चल पड़ा, मोती गज बागान मालिक के दरवाजे पर था। वह खुशी से चिंघाड़ते हुए दीसा की बाँहों में आ गया।
दुन्माया एक निहायत ईमानदार लड़की थी। और अंग्रेज के लिए उसके दिल में इज्जत होने के बावजूद वह अपने पति की कमजोरियों को काफी कुछ समझती थी। उसने अपने पति को प्यार से सँभाला और एक साल से भी कम समय में वह पहनावे व चाल-ढाल से अंग्रेजन-सी हो गई। सोचने में यह अजीब लगता है कि किसी पहाड़ी आदमी को जिंदगी भर पढ़ाओ-लिखाओ और वह फिर भी पहाड़ी मानुस ही रहता है; लेकिन एक पहाड़ी औरत छह महीनों में अपनी अंग्रेजी बहनों के तौर-तरीके सीख जाती है। एक बार एक कुली औरत होती थी। लेकिन वह अलग कहानी है।
—इसी संग्रह से
प्रसिद्ध कथाकार रुडयार्ड किपलिंग की रोचक-पठनीय-लोकप्रिय कहानियों का संकलन।
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अनुक्रम
1. मोती गज : विद्रोही —Pgs 7
2. भविष्यवाणी —Pgs 17
3. चौहद्दी के पार —Pgs 23
4. अन्य पुरुष —Pgs 31
5. मिस यूगल का साईस —Pgs 36
6. सद्धू के मकान में —Pgs 44
7. नन्हा टोबरा —Pgs 54
8. झूठा सवेरा —Pgs 58
9. बैंक धोखाधड़ी —Pgs 69
10. अविश्वासी के बंधन में —Pgs 78
11. सौ दुःखों का द्वार —Pgs 84
12. लिसपेथ —Pgs 93
13. मुहम्मद दीन की कहानी —Pgs 100
14. उसे राजा होना था —Pgs 105
जन्म 30 दिसंबर, 1865 को बंबई में हुआ था। गद्य-पद्य लेखन के लिए समान रूप से विख्यात किपलिंग की पुस्तक ‘द जंगल बुक’ सर्वाधिक लोकप्रिय एवं चर्चित है। ‘किम’ तथा ‘द मैन हु वुड बी किंग’ साहसिक कहानी संग्रह हैं। उनकी कविताओं में ‘मंडालय’, ‘गंगादिन’ और ‘इफ’ प्रमुख हैं। लघु कहानी विधा के वे अन्वेषक माने जाते हैं। बाल साहित्य में तो उनकी कई कालजयी कृतियाँ हैं। सन् 1907 में उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पानेवाले वे अंग्रेजी भाषा के आज तक के सबसे युवा प्राप्तकर्ता माने जाते हैं। इसके अलावा उन्हें ‘ब्रिटिश पोयट लॉरिएटशिप’ और ‘नाइटहुड’ की उपाधि दी गईं, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया। 18 जनवरी, 1936 को उनका स्वर्गवास हुआ।