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लब खुले, बाँहें फैलीं,खामोशी को तोड़ते
शब्द और अहर्निश नदी की तरह बहते विचार एवं उनके समुच्चय का नाम है‘समर गाथा’।
यह सिर्फ एक विचार पर कदमताल करते स्वरों का कलरव नहीं, बल्कि अलग-अलगसमय में
उपजे विचारों का संकलन है। यह ताली-बजाऊ संस्कृति के विरुद्ध सघन और
विवेकउद्वेलन का आवश्यक जनमार्ग है। यह सिर्फ विभिन्न दिनों में लिखे गए
पत्रकारीय आग्रहभर नहीं है, इसमें सच और अनुभव को व्यक्त करने का जरूरी सामर्थ्य
भी है। इसमें गहराईऔर संश्लिष्टता है, बोधगम्यता है।
यह वह
केंद्रीभूतधारणा है, जिसने ‘समर गाथा’ को पुस्तकाकार लेने में मेरी मदद की।
मुरली, घर-आँगन, वन-उपवन,मन-तन की नहीं, जीवन की अहर्निश गूँज का नाम है ‘समर
गाथा’। आप भिज्ञ हैं कि प्राणका रूपांतर भाषा है, इसमें प्रवाह है, स्पर्श है।
प्रवाह है, इसलिए गति है, स्पर्शहै, इसीलिए संवाद भी है। मैंने जब-जब इन आलेखों
को पढ़ा, इसमें तैरता रहा। मुझे लगाकि इसमें सामयिक दृष्टिबोध है, कहन है, कहन
में जरूरी घनत्व है, फिर भी बहाव है; जैसेसभी नदियाँ सरस्वती हैं और सभी पहाड़
पुण्य।
यह पुस्तक आपको अपनेदृष्टिकोण का विकास करने में मदद
करेगी। कृपा करेंगे कि इसके पात्रों को हिंदू-मुसलमानके चश्मे से नहीं,
क्रांतिकारी के रूप में देखेंगे तो समय और समाज को समझने में
मददमिलेगी।
—डॉ. पियूष जैनराष्ट्रीय सचिव, पैफ