सरयू राय और उनके लेखन से परिचय 1980 के दशक में हुआ, जब हम ‘जनमत’ के लिए काम करते थे और ‘रविवार’ में लिखा करते थे। पठन-पाठन और भ्रष्टाचार की खबरों—कृषि, सहकारिता, सिंचाई को लेकर पत्रकारों को रायजी खूब फीड भी किया करते थे। ऐसे में उनके साथ पत्रकारों की खूब बनती थी। ढेर सारे अग्रज उनके मित्र थे। आज लगता है, रायजी अगर पॉलिटिकल क्षेत्र में नहीं गए होते तो एक अकादमिक रिसर्चर होते। उन्होंने द्वितीय सिंचाई आयोग में बिहार की नदियों पर गंभीर कार्य कराया। वे एक बौद्धिक मिजाज के आदमी हैं।
यों तो इस पुस्तक में 1990 के बाद की उनकी रचनाएँ हैं, लेकिन दरअसल उनका नियमित लेखन 1985 के बाद से है। हालाँकि लेखन में वे सक्रिय तो 1980 के दशक के पूर्व जनता पार्टी के बनने और उसके बाद से ही थे। तब से 1980-90 के बाद वे सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ पत्रकारों के साथ लगातार सक्रिय रहे। 1986 में हिंदुस्तान-नवभारत टाइम्स आने के बाद पत्रकारों की फौज भी पटना में बढ़ गई थी।
पत्रकार-जीवन और उसके बाद के समस्यापरक लेखों का संग्रह है यह पुस्तक।
—श्रीकांत
वरिष्ठ पत्रकार एवं निदेशक,
जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान, पटना
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अनुक्रम
आभार—7
प्राक्कथन—9
भूमिका—33
अंतर्कथ्य—41
पुस्तक के बारे में—45
1. संसाधन संपन्न पिछड़ा राज्य—53
2. आंतरिक उपनिवेश की पीड़ा—56
3. अप्रासंगिक गाडगिल फॉर्मूला—61
4. विकास की मंथर गति—66
5. पिछड़ापन बनाम क्षेत्रीय विषमताएँ—70
6. वित्तीय संकट के सवाल पुराने हैं—75
7. कर्ज ने अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर रखा—80
8. बिहार को मिले विशेष राज्य का दर्जा—84
9. राजनैतिक बाजीगरी की देन है बिहार का वित्तीय संकट—89
10. विकास के लिए खर्च का तरीका बदलना जरूरी—94
11. आठवीं योजना के लिए संसाधन जुटाने की समस्या—99
12. अतिरिक्त संसाधनों के भरोसे बनी वार्षिक योजना—102
13. योजना और बजट में तालमेल की कोशिशें—106
14. वित्तीय वर्ष बदलने की पहल होनी चाहिए—110
15. परंपरागत बजट प्रणाली के सवाल—114
16. शून्य आधारित बजट की संभावनाएँ और सीमाएँ—118
17. बजट का पर्याय बनता जा रहा है लेखानुदान—122
18. आकस्मिकता निधि या विलोम बजट—127
19. ओवर ड्राफ्ट की अर्थव्यवस्था—131
20. लोक-लेखा : बजट का घाटा कर दिखाने भर की भूमिका—135
21. वार्षिक योजना का आकार—139
22. बजट पूर्व आर्थिक समीक्षा की परंपरा कायम होनी चाहिए—144
23. गैर-योजना मद का हर व्यय गैर (विकास) व्यय नहीं होता—149
24. आठवीं योजना : वृद्धि दर हासिल करने की मुश्किलें—153
25. बिहार में पूँजी निवेश की समस्या एवं संभावना—157
26. प्रति व्यक्ति आय की कसौटी और बिहार—161
27. विकास बनाम निर्धनता रेखा से नीचे की जनसंख्या—165
28. केंद्रीय पूँजी निवेश पर बिहार का विशेष हक बनता है—170
29. राजीव पैकेज : बिहार की विकास-विसंगति के संदर्भ में—175
30. अलाभकर सिंचाई परियोजनाओं का आर्थिक बोझ—179
31. वार्षिक योजना में कटौती रोकने का हर संभव उपाय होना चाहिए—183
32. विश्व बैंक सहायता पर टिकी बिहार सरकार की नजरें—187
33. राज्य की वित्तीय प्रणाली पर हावी कार्य-संस्कृति बदलनी होगी—192
34. बिहार में बाढ़ नियंत्रण का अर्थशास्त्र—197
35. भौगोलिक विभाजन की माँग से उभरते आर्थिक सवाल—201
36. भौगोलिक विभाजन की माँग से जुड़े आर्थिक सवाल—206
37. योजना प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन की जरूरत—210
38. राजनैतिक निर्णयों के आर्थिक पहलू—215
39. कर्ज को आय मान बैठने की मुश्किलें—220
उपसंहार—225
11 जुलाई, 1949 को बिहार के शाहाबाद (बक्सर) जिले के गाँव खनीता में जन्म।
स्नातक पटना साइंस कॉलेज से और स्नातकोत्तर (भौतिकी) पटना विश्वविद्यालय से।अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एवं बिहार छात्र-जन आंदोलन में सक्रियता, आपातकाल के दौरान भूमिगत कार्य एवं भूमिगत पत्रिका ‘लोकवाणी’ के संपादन एवं प्रसार में सहयोग। 1977 में संगठन मंत्री, जनता युवा मोर्चा, बिहार के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में कार्य आरंभ। 1980 से 1984 के बीच बिहार प्रदेश जनता पार्टी के महामंत्री। 1984 से 1992 तक सक्रिय राजनीति से इतर जे.पी. विचार मंच, खेतिहर मंच, सोन अंचल किसान संघर्ष समिति आदि जन संगठनों के माध्यम से सामाजिक कार्य, एवं स्वतंत्र पत्रकारिता। मासिक पत्रिका ‘कृषि बिहार’ का संपादन। भाजपा प्रदेश महामंत्री, प्रदेश प्रवक्ता एवं वनांचल क्षेत्र समिति प्रभारी।
1997 से 2004 के बीच बिहार विधान परिषद् के सदस्य; 2005 से 2009 तक झारखंड विधान सभा के सदस्य। दामोदर बचाओ आंदोलन, जल जागरूकता अभियान, स्वर्णरेखा प्रदूषण मुक्ति अभियान, सारदा संरक्षण अभियान, सोन अंचल विकास समिति, कृषि एवं खाद्य सुरक्षा संगठन के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण एवं गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में सक्रियता।