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मैं पूछता, ‘‘माँ, संसार क्या है?
‘‘सब समय है। ब्रह्मांड में सारे ग्रह घूम रहे हैं। ग्रहों का यह चक्र ही समय है। यही संसार है।’’
‘‘माँ, फिर ‘जिंदगी’ क्या है?’’
‘‘यह समय का एक छोटा सा क्षण है। धरती पर आने और जाने के बीच के इसी क्षण को जिंदगी कहते हैं। लोग रोज आते हैं, रोज चले जाते हैं।’’
‘‘फिर उसके बाद?’’
‘‘फिर समय का पहिया घूमता हुआ आता है और हमें एक नए संसार में ले जाता है। नए रिश्तों से जोड़ देता है। नई जिंदगी मिल जाती है।’’
‘‘फिर इतनी मारा-मारी क्यों, माँ?’’
‘‘अज्ञान की वजह से।’’
‘‘यह अज्ञान क्यों?’’
‘‘अहंकार की वजह से। जैसे आँखें सबकुछ देखती हुई भी खुद को नहीं देख पातीं, उसी तरह अज्ञान भी खुद के वजूद का पता नहीं चलने देता।’’
‘‘फिर मुझे क्या करना चाहिए?’’
‘‘तुम जीना। जीने की तैयारी में जिंदगी खर्च मत करना।’’
मैं जीने लगा हूँ, आप भी चलिए मेरे साथ ‘समय’ के सफर पर।
आजतक में बतौर संपादक कार्यरत संजय सिन्हा ने जनसत्ता से पत्रकारिता की शुरुआत की। दस वर्षों तक कलम-स्याही की पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। कारगिल युद्ध में सैनिकों के साथ तोपों की धमक के बीच कैमरा उठाए हुए उन्हीं के साथ कदमताल। बिल क्लिंटन के पीछे-पीछे भारत और बँगलादेश की यात्रा। उड़ीसा में आए चक्रवाती तूफान में हजारों शवों के बीच जिंदगी ढूँढ़ने की कोशिश। सफर का सिलसिला कभी यूरोप के रंगों में रँगा तो कभी एशियाई देशों के। सबसे आहत करनेवाला सफर रहा गुजरात का, जहाँ धरती के कंपन ने जिंदगी की परिभाषा ही बदल दी। सफर था तो बतौर रिपोर्टर, लेकिन वापसी हुई एक खालीपन, एक उदासी और एक इंतजार के साथ। यह इंतजार बाद में एक उपन्यास के रूप में सामने आया—‘6.9 रिक्टर स्केल’। सन् 2001 में अमेरिका प्रवास।
11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क में ट्विन टावर को ध्वस्त होते और 10 हजार जिंदगियों को शव में बदलते देखने का दुर्भाग्य। टेक्सास के आसमान से कोलंबिया स्पेस शटल को मलबा बनते देखना भी इन्हीं बदनसीब आँखों के हिस्से आया।