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“शायद आपके मन में प्रश्न उठेगा कि साधु जीवन ही बिताना था तो युवराज के बिना अधिकार पाने के लिए मैंने इतना संघर्ष क्यों किया? इसका कोई संतोषजनक उत्तर मेरे पास नहीं है। परंतु मैं स्वयं की परीक्षा लेना चाहता था। इतने वर्षों की साधना की मुझे परीक्षा करनी थी। अब आप में से कोई हमें फिर माया के बंधन में जकड़ने का प्रयास न करें, यही प्रार्थना है।”
निर्मल कुमार ने अंतिम शब्द कहे, “हम इस राज्य की हद छोड़कर कहीं जानेवाले नहीं हैं, साधु रहकर संसारी की तरह साथ जीनेवाले हैं; परंतु हमारा आवास राजमहल की बजाय मंदिर रहेगा।”
डबडबाई आँखों से सबने उस संसारी साधु को सपत्नीक विदा किया। उन दोनों के जाने के बाद राजमाता कुँवर करण और राजकुमारी चंदन के गले से लगकर सिसक-सिसककर रोती रहीं। साथ ही उनके भीतर मन-ही-मन मानो कोई कह रहा था, ‘जिसने सात जन्मों तक तप किया हो, उसकी कोख से ही ऐसा पवित्र पुत्र अवतार लेता है!’
राजमाता परम संतोष अनुभव कर रही थीं।
—इसी उपन्यास से
अत्यंत मार्मिक एवं कारुणिक उपन्यास, जो पाठकों के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ेगा।
गुजराती भाषा के लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित उपन्यासकार श्री हरकिसन महेता का जन्म सौराष्ट्र के महुवा नगर में 25 मई, 1928 को हुआ। सन् 1965 में ‘चित्रलेखा’ साप्ताहिक के संपादक नियुक्त हुए, जिसमें 1966 में चंबल के तत्कालीन कुख्यात डाकू जग्गा की जीवनी से संबंधित ‘जग्गा डाकू’ उपन्यास धारावाहिक प्रारंभ किया। दो वर्षों तक वह उपन्यास क्रमश: प्रकाशित होता रहा, इसी के प्रेरणास्वरूप गुजराती धारावाहिक उपन्यासों का नया युग प्रारंभ हुआ। अब तक बीस उपन्यासों का लेखन-प्रकाशन। अनेक रचनाएँ मंचस्थ और चित्रपट भी निर्मित।
देहावसान : 3 अप्रैल, 1998।