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स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘पश्चिम के प्राण यदि पाउंड, शिलिंग, पेंस में बसते हैं तो भारत के प्राण धर्म में बसते हैं। भारत धर्म में जीता है। धर्म के लिए जीता है। धर्म ही भारत की आत्मा है।’ भारत का यह मूल तत्त्व उसकी सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह विभिन्न रूपों में सर्वत्र व्याप्त है। आज भी बदरीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, वैष्णो देवी और कैलास मानसरोवर तक की दुर्गम यात्रा-मार्ग पर भक्ति-गीत गाते युवाओं की टोली उस धर्म-युग का प्रकटीकरण ही तो है। ज्ञान-विज्ञान की आधुनिकता के साथ कुंभ मेले में करोड़ों जन का उमड़ आना भी यही दरशाता है। धर्म-अध्यात्म की कथा के वाचकों-उपदेशकों के आयोजनों में समृद्ध, संभ्रांत और शिक्षित वर्ग भी खिंचा चला आता है। स्वाध्याय परिवार, गायत्री परिवार, स्वामीनारायण संप्रदाय, राधास्वामी, निरंकारी समागम के समारोहों में लाखों की संख्या में लोग सम्मिलित होते हैं। इसका कारण यह है कि हमने धर्म को सर्वोपरि माना, उपासना पद्धति की एकरूपता का आग्रह कभी नहीं रखा; उपासना की विविधता को शिरोधार्य किया। भारतीय समाज जीवन में कभी कोई एक मजहबी केंद्र या चर्च नहीं रहा। ऐसा वैविध्यपूर्ण समाज 1300 वर्ष तक इसलाम व ईसाइयत की एकरूपतावादी विचारधारा से जूझता रहा है। इसके बावजूद उसने अपना मूल चरित्र बनाए रखा है।
भारतीय संस्कृति का माहात्म्य स्थापित करनेवाली चिंतनपरक पुस्तक।
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अनुक्रम
१. राजनीति नहीं, संस्कृति ही भारत की आत्मा —Pgs. ७
२. सौ-सौ नामरूपों में प्रस्फुटित सनातन धर्म —Pgs. १४
३. हमारे राष्ट्रवाद की नींव है अध्यात्म —Pgs. २५
४. कारागार में दैवी साक्षात्कार —Pgs. ३३
५. भारत ने गांधी को क्यों शिरोधार्य किया —Pgs. ३७
६. नेहरू राजनीति, तो गांधी संस्कृति —Pgs. ४६
७. वह विराट दृश्य और अंधी पत्रकारिता —Pgs. ५७
८. सहस्रशीर्षा सहस्रपाद हिन्दुत्व राष्ट्र-जागरण यज्ञ —Pgs. ६४
९. स्वाध्याय प्रवाह : एक अद्भुत प्रयोग —Pgs. ७१
१०. भक्ति से समाज का कायाकल्प —Pgs. ८५
११. संस्कृत की कोख में आकार ले रहा एक नया भारत —Pgs. ९१
१२. भाव-निर्झर वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली की प्रयोगशाला —Pgs. ९८
१३. भाव परिवर्तन से ही आर्थिक विकास संभव —Pgs. १०४
१४. दो स्वाध्यायी गाँवों में क्या देखा? —Pgs. ११०
१५. स्वाध्याय-वाङ्मय का नवनीत —Pgs. ११६
१६. भारत की आत्मा है ‘स्वाध्याय’ —Pgs. १२३
१७. संस्कृति प्रवाह की धमनियाँ हैं मेले —Pgs. १२९
१८. मेले : सांस्कृतिक एकता के तीर्थ —Pgs. १३६
१९. कुंभ मेले में श्रद्धा का ज्वार —Pgs. १४४
२०. पाँचवाँ धाम बना विवेकानंद शिला स्मारक —Pgs. १५२
२१. जीवनव्रती साधना का पुष्प वृक्ष —Pgs. १७१
२२. इन आँखों ने एक नए तीर्थ को उगते देखा —Pgs. १७८
२३. सिंधु दर्शन पर्यटन नहीं, तीर्थयात्रा है —Pgs. १८७
२४. अध्यात्म प्रवचन नहीं, आचरण है —Pgs. १९५
२५. सेवा क्षेत्र में तरह-तरह के खिलाड़ी —Pgs. २००
२६. राम का विजय पर्व है दीपावली —Pgs. २०६
जन्म 30 मार्च, 1926 को कस्बा कांठ (मुरादाबाद) उ.प्र. में। सन. 1947 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. पास करके सन् 1960 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता। सन् 1961 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास) में प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान। सन् 1961-1964 तक शोधकार्य। सन् 1964 से 1991 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में इतिहास का अध्यापन। रीडर पद से सेवानिवृत्त। सन् 1985-1990 तक राष्ट्रीय अभिलेखागार में ब्रिटिश नीति के विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के ‘ब्रिटिश जनगणना नीति (1871-1941) का दस्तावेजीकरण’ प्रकल्प के मानद निदेशक। सन् 1942 के भारत छोड़ाा आंदोलन में विद्यालय से छह मास का निष्कासन। सन् 1948 में गाजीपुर जेल और आपातकाल में तिहाड़ जेल में बंदीवास। सन् 1980 से 1994 तक दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष। सन् 1948 में ‘चेतना’ साप्ताहिक, वाराणसी में पत्रकारिता का सफर शुरू। सन् 1958 से ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक से सह संपादक, संपादक और स्तंभ लेखक के नाते संबद्ध। सन् 1960 -63 में दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ लखनऊ में उप संपादक। त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘मंथन’ (अंग्रेजी और हिंदी का संपादन)।
विगत पचास वर्षों में पंद्रह सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन। अनेक संगोष्ठियों में शोध-पत्रों की प्रस्तुति। ‘संघ : बीज से वृक्ष’, ‘संघ : राजनीति और मीडिया’, ‘जातिविहीन समाज का सपना’, ‘अयोध्या का सच’ और ‘चिरंतन सोमनाथ’ पुस्तकों का लेखन।