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मनुष्यता का क्षय सूर्यबाला के रचना-संसार की मुख्य चिंता है और दुर्लभ मानुषगंध को सहज लेना उसका सहज स्वभाव है।
किसी 'विमर्श’ , 'आंदोलन’ , 'शिविर’ की जकडऩ से मुक्त उनकी सर्जना का सही मूल्यांकन पूर्वनिश्चित और पूर्वग्रह-प्रेरित समीक्षा-दृष्टि के वश की बात नहीं है। यह कृति सूर्यबाला की रचनाशीलता के स्रोत, सोच, सरोकार और संप्रेषण-कौशल पर खुले मन से विचार करनेवाले सहृदय समीक्षकों का समवेत प्रयास है। बिना किसी हड़बड़ी या अतिरंजना के रचनाओं के 'मर्म’ और 'विजन’ को समझने का विवेक इन मंतव्यों के अतिरिक्त दीप्ति दे सका है। ध्यानाकर्षक है कि समीक्षकों की दृष्टि रचनाओं की अंतर्वस्तु तक सीमित नहीं है। इसमें वस्तु और अभिव्यंजना का संश्लिष्ट अनुशीलन जितना वस्तुनिष्ठ है, उतना ही प्रासंगिक भी।
इस दौर की महत्त्वपूर्ण लेखिका के वैशिष्टय को उद्घाटित करने में सक्षम एक सार्थक समीक्षा-संवाद है यह कृति।
जन्म : 1 जुलाई, 1947 को गाजीपुर (उ.प्र.) में।
शिक्षा : एम.ए., पी-एच.डी., डी. लिट्.।
कृतित्व : दो कविता-संग्रह, दो कहानी संग्रह, एक व्यंग्य-संग्रह और लगभग एक दर्जन शोध-समीक्षात्मक कृतियाँ, जिनमें ‘राजेंद्र यादव : कथायात्रा’, ‘हिंदी कहानी के सौ वर्ष’, ‘हिंदी उपन्यास की दिशाएँ’, ‘रामदरश मिश्र : रचना समय’, ‘अक्षर बीज की हरियाली’, ‘हिंदी कहानी का समकालीन परिदृश्य’, ‘भक्ति-साहित्य : आधुनिक संदर्भ’, ‘महाकवि सूरदास’, ‘साहित्य और हमारा समय’ उल्लेखनीय हैं।
संप्रति : ‘अभिनव प्रसंगवश’ (त्रैमासिक) का संपादन और प्रकाशन।
संपर्क : डी-131, रमेश विहार, अलीगढ़-202001 "