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Shanker Dayal Singh ki Lokpriya Kahaniyan   

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Author Shanker Dayal Singh
Features
  • ISBN : 9789351869030
  • Language : Hindi
  • ...more
  • Kindle Store

More Information

  • Shanker Dayal Singh
  • 9789351869030
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • 2016
  • 184
  • Hard Cover

Description

वरिष्ठ साहित्यकार श्री शंकर दयाल सिंह की कहानियाँ पाठकों के अनुभव से मिलकर रसों का इस कदर साधारणीकरण कर देती हैं कि लगता ही नहीं कि आप कहानी पढ़ रहे हैं। यही तो है, उनकी कहानियों की सबसे बड़ी खासियत।
शैली का चमत्कार देखने की मंशा रखनेवालों को शंकर दयाल सिंह की कहानियाँ पढ़कर निराश होना पड़ सकता है। उन्होंने लेखन की विरासत तो अपने साहित्यकार पिता कामता प्रसाद सिंह काम से ली, पर शैली खुद अपनी विकसित की। किसी को हिंदी का कीट्स कहा गया, तो किसी को शैली, रामवृक्ष बेनीपुरी ने कामजी को हिंदी का चेस्टरटन कहा। उनकी लेखन-शैली में चेस्टरटन की लेखन-कला के वे सारे तत्त्व मौजूद हैं, जो पाठकों को चमत्कृत और झंकृत कर देते हैं। पर कामजी की शैली जितनी चमत्कारी है, शंकर दयाल सिंह का लेखन उतना ही सहज। इतना कि उसमें शैली का कहीं कोई भान ही नहीं होता और पाठक उसके कथ्य से सीधे-सीधे बँध जाता है।
घटनाएँ ही चामत्कारिक हों तो उन्हें चमत्कारपूर्वक प्रस्तुत करने की जरूरत भला क्यों हो? शंकर दयाल सिंह की ये कहानियाँ कुछ ऐसी ही हैं।

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अनुक्रम

भूमिका —Pgs. 7

1. कितना क्या अनकहा —Pgs. 9

2. और विश्वास टूट गया —Pgs. 21

3. आकाश, सरदर्द और डूबता सूरज —Pgs. 27

4. आत्मदाह —Pgs. 34

5. यादों के घेरे —Pgs. 42

6. मिथ्याओं के बीच —Pgs. 46

7. संघर्ष के बाद —Pgs. 53

8. समझौते में बँधी जिंदगी —Pgs. 61

9. संत्रास —Pgs. 65

10. अनायास —Pgs. 68

11. सिलसिला —Pgs. 75

12. मंदिर की देहरी —Pgs. 84

13. आर-पार की मंजिलें —Pgs. 91

14. अतृप्ति : परितृप्ति —Pgs. 103

15. चित्र-ध्वनि —Pgs. 113

16. अब रहने दो —Pgs. 123

17. अंतिम पत्र —Pgs. 138

18. यह कहानी नहीं है —Pgs. 145

19. सागर की एक लहर —Pgs. 151

20. तसवीरों के बीच —Pgs. 157

21. साक्षियों के बीच —Pgs. 161

22. मामू —Pgs. 166

23. मोहरसिंह —Pgs. 172

The Author

Shanker Dayal Singh

साहित्यकार-राजनीतिज्ञ शंकर दयाल सिंह सन् 1971 से 1977 तक लोकसभा के तथा सन् 1990 से 1995 तक राज्यसभा के सदस्य रहे थे। राज्यसभा के सदस्य रहते हुए ही 26 नवंबर, 1995 को पटना से टुंडला के रास्ते ट्रेन में ही उनका निधन हो गया। एक तरह से उनका जीवन ही यात्रा थी और चरैवेति-चरैवेति को सिद्धांत रूप में माननेवाले यह यायावर चलते-चलते ही महायात्रा पर निकल पड़े। 
उनकी अथक हिंदी सेवाओं के लिए उनका नाम सदैव श्रद्धा से लिया जाता रहेगा। साहित्य और राजनीति के बीच उन जैसा सेतु विरला होता है। साहित्य मनीषी अज्ञेय तो उन्हें हिंदी का ‘फील्ड मार्शल’ ही बुलाते थे। राजनीति को संस्कारशील बनाने और साहित्य को बलवती करने के लिए ही उन्होंने राजनीति के कीचड़ में रहना स्वीकार किया था। वे राष्ट्रभाषा के जितने बड़े हिमायती थे, उतने ही बड़े पक्षधर वे जनभाषा के भी थे। उनके अनुसार सही हिंदी वही है, जो सहजता से जुबान पर थिरक जाए और सरलता से कलम की नोंक पर चली आए। राजभाषा का स्वरूप वही हो, जो आम जन के बोलचाल की भाषा है।
उनकी तीस से अधिक पुस्तकें उनकी रचनाधर्मिता का मुखर प्रमाण हैं। इन पुस्तकों में उनके यात्रा-वृत्तांत, व्यक्ति संस्मरण, निर्बंध निबंध, सामयिक विचार, कहानियाँ और यहाँ तक कि कविताएँ भी—या यों कहें कि उनका पूरा रचना-संसार सहेजा हुआ है।

 

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