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जब न बेर कुछ बचे राम ने लखा निकट का कोना,
देखा क्षत-विक्षत बेरों का पड़ा दूसरा दोना।
बोले वह भी लाओ भद्रे! वे क्यों वहाँ छिपाए,
होंगे और अधिक मीठे वे लगते शुक के खाए।
उठा लिया था स्वयं राम ने अपना हाथ बढ़ाकर,
तभी राम का कर पकड़ा था श्रमणा ने अकुलाकर।
प्रभु! अनर्थ मत करो, लीक संस्कृति की मिट जाएगी,
जूठे बेर भीलनी के खाए, दुनिया गाएगी।
हुआ महा अघ यह मैंने ही चख-चखकर छोड़े थे,
जिस तरु के अति मधुर बेर थे, वही अलग जोड़े थे।
किंतु किसे था भान, प्रेम से तन-मन सभी रचा था,
कहते-कहते बेर राम के, मुख में जा पहुँचा था।
छुड़ा रही थी श्रमणा, दोना राम न छोड़ रहे थे,
हर्ष विभोर सारिका शुक ने तब यों वचन कहे थे।
जय हो प्रेम मूर्ति परमेश्वर, प्रेम बिहारी जय हो,
परम भाग्य शीला श्रमणा भगवती तुम्हारी जय हो।
—इसी महाकाव्य से
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रामायण में प्रभु की भक्त-वत्सलता और भक्त की भक्ति की मार्मिक कथा की नायिका श्रमणा पर भावपूर्ण महाकाव्य।
महाकवि अवधेशजी का जन्म
1 अक्तूबर, 1928 को चित्रगुप्त के वंश में ग्राम पट्टी कुम्हर्रा, तहसील-मोंठ, जिला-झाँसी में हुआ था। उनके पिता का नाम स्व. श्री उमाप्रसाद श्रीवास्तव एवं माता का नाम स्व. श्रीमती कनल कुँवर है। उनके भरे-पूरे परिवार में धर्मपत्नी श्रीमती श्रीकुँवर, दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हैं।
महाकवि अवधेशजी सब प्रकार श्री एवं साहित्य संपन्न हैं। उनकी लेखनी अब भी अबाध गति से चलती रहती है।
कृतियाँ : भारत आगमन, मिस फ्रीडम, प्रायश्चित, देवकी संदेश, श्रमणा : शबरी के राम।
अवधेशजी की अनेक रचनाएँ बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में एम.ए. व बी.ए. के पाठ्यक्रम में समाहित हैं। हिंदी की फाइनल परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थी को प्रतिवर्ष ‘महाकवि अवधेश स्वर्ण पंख’ प्रदान किया जाता है एवं बाल अध्यात्म प्रबोध परीक्षा कराकर प्रतिवर्ष एक विद्यालय को चयनित कर सभी छात्रों को उनके जन्मदिन, यानी
1 अक्तूबर पर पुरस्कृत किया जाता है।