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संजय सिन्हा की पुस्तक बहुत से लोगों की ज़िंदगी में उजाला भर सकती है। छोटे-छोटे प्रसंगों से बड़ी गहरी बातें संजय ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट की हैं। आज व्यक्ति संवेदना शून्य हो चुका है क्योंकि वो रिश्ते भूल गया है। रिश्ते नहीं हैं तो ज़िंदगी कैसे जी पाएँगे? इसलिए समय की कीमत पहचानिए और दिलों में उम्मीद का दीपक जलाइए।
—इंडिया टुडे
ये दास्तानें हैं हमारी-आपकी ज़िंदगी की, कुछ खट्टी, कुछ मीठी, तो कुछ हैरान-परेशान कर देने वाली। पर हैं सच। ऐसे ही सच से आपको रूबरू कराया है लेखक ने। आपसी रिश्तों और सामाजिक ताने-बाने को उजागर करती ये दास्तानें काफी दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गई हैं और इनमें पाठकों को हद दर्जे का अपनापन नज़र आता है।
—नवभारत टाइम्स
अपनी पुस्तक में संजय सिन्हा ने तमाम अनुभवों को साझा किया है। उन्होंने रिश्तों की कई कहानयों को अपनी किताब में बहुत बारीक निगाहों से तराशा है। संजय ने अपने अनुभव की कहानियों को बहुत ही दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है। कई मायनों में इनकी पुस्तक एक प्रयोग की तरह है।
—जनसत्ता
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अनुक्रम | |
शुक्रिया—5 | 49. रिश्तों के तार पहचानिए—154 |
1. रिश्तों की स्टेपनी—13 | 50. पापा को पाती—157 |
2. ज़िंदगी का जश्न—17 | 51. कायर देवदास—160 |
3. नश्तर का सिपाही—19 | 52. नफरत की दुनिया छोड़ो—163 |
4. अव्वल—22 | 53. कैसी हो डार्लिंग?—166 |
5. चौदह का चकर—24 | 54. टोल टैस—169 |
6. ज़िंदगी का डॉटर—27 | 55. आँगन की धूल—172 |
7. अनमोल उपहार—30 | 56. बेटे की जिद—175 |
8. हमें तुमसे प्यार कितना—33 | 57. तक-तक, धुम-धुम—179 |
9. प्यार की चीनी—36 | 58. रिश्तों की कमाई—182 |
10. दु:ख की हिस्सेदारी—39 | 59. शुभस्य शीघ्रम्—185 |
11. जो वादा किया है —42 | 60. एक कटोरी खीर—189 |
12. चंद्रवती—45 | 61. मंगल और शुक्र—194 |
13. विद्या कसम—51 | 62. माँ बनना—197 |
14. दिल की सुनो—54 | 63. सड़क के लुटेरे—199 |
15. अधूरा सपना—58 | 64. दिन का उजाला—203 |
16. भीम की हँसी—61 | 65. कोयला पर छापा—207 |
17. मेरा प्यार—64 | 66. गुरु और चेला—210 |
18. दिल में तनहाई बसती है—66 | 67. माँ-बाप को मत मारो—214 |
19. धरा हुआ ठाठ—69 | 68. दुआओं का असर—218 |
20. कैसी हो हैलो?—71 | 69. अच्छी बहू—222 |
21. दो बहनें—73 | 70. तोहफा कबूल है—225 |
22. रिसते रिश्ते—75 | 71. एक सेकंड की कीमत—229 |
23. उड़नेवाला गुबारा—77 | 72. एक दिल महिला का—232 |
24. उसका इंतज़ार—79 | 73. विश्वास सबसे बड़ा—235 |
25. गमले का पौधा—82 | 74. ज़िंदगी का सिनेमा—238 |
26. सुनो सावित्री—85 | 75. सबसे बड़ी तपस्या—241 |
27. भरोसे के पंख—89 | 76. जवान बेटा—243 |
28. छोटी सी आशा—92 | 77. राज धर्म—246 |
29. हमारा दाम—95 | 78. शहंशाह का खत—249 |
30. चमत्कारी पत्थर—97 | 79. बेटे के नाम माँ की पाती—252 |
31. मधुमखी का छा—100 | 80. चिया रानी—255 |
32. यही है सही जवाब—103 | 81. मेरा घमंड—258 |
33. आदमी का निर्माण—105 | 82. यह तो मेरी आदत है—262 |
34. उड़ते लोग—108 | 83. कहानी सिकंदर की—265 |
35. एक ही भूल—112 | 84. बदले में दिल दे—269 |
36. आपकी इज्जत—115 | 85. बनना उल्लू का—272 |
37. टाइगर डॉटर—117 | 86. मॉल में मिली कहानी—276 |
38. मेरी शर्मिंदगी—120 | 87. फाइनल इलाज—279 |
39. मैं आजाद नहीं हूँ—124 | 88. रिशे पर पाव भाजी—282 |
40. मरद का खून—127 | 89. सबसे बड़ा बोझ—285 |
41. दिल से रे—131 | 90. हम सब चोर हैं—289 |
42. प्रेम या है?—134 | 91. मेरी माँ, आपकी माँ—293 |
43. चिड़िया और पानी—137 | 92. असली ज्ञान—296 |
44. किसकी संतान?—140 | 93. जी लो ज़िंदगी—299 |
45. इसको तो फर्क पड़ेगा—142 | 94. भाग्यशाली कार—301 |
46. सास, बहू और साजिश—144 | 95. मुझे चाँद चाहिए—304 |
47. यह कहानी मत पढ़िए—147 | 96. बुरा मत सोचो—307 |
48. अनुगीता—150 |
आजतक में बतौर संपादक कार्यरत संजय सिन्हा ने जनसत्ता से पत्रकारिता की शुरुआत की। दस वर्षों तक कलम-स्याही की पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। कारगिल युद्ध में सैनिकों के साथ तोपों की धमक के बीच कैमरा उठाए हुए उन्हीं के साथ कदमताल। बिल क्लिंटन के पीछे-पीछे भारत और बँगलादेश की यात्रा। उड़ीसा में आए चक्रवाती तूफान में हजारों शवों के बीच जिंदगी ढूँढ़ने की कोशिश। सफर का सिलसिला कभी यूरोप के रंगों में रँगा तो कभी एशियाई देशों के। सबसे आहत करनेवाला सफर रहा गुजरात का, जहाँ धरती के कंपन ने जिंदगी की परिभाषा ही बदल दी। सफर था तो बतौर रिपोर्टर, लेकिन वापसी हुई एक खालीपन, एक उदासी और एक इंतजार के साथ। यह इंतजार बाद में एक उपन्यास के रूप में सामने आया—‘6.9 रिक्टर स्केल’। सन् 2001 में अमेरिका प्रवास।
11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क में ट्विन टावर को ध्वस्त होते और 10 हजार जिंदगियों को शव में बदलते देखने का दुर्भाग्य। टेक्सास के आसमान से कोलंबिया स्पेस शटल को मलबा बनते देखना भी इन्हीं बदनसीब आँखों के हिस्से आया।