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आज की आपाधापीवाली जिंदगी में प्रतियोगिताएँ बहुत बढ़ गई हैं। शिक्षा व कैरियर के साथ लड़कियों के पास घर के काम-काज के लिए समय का अभाव है। दूसरी ओर घरेलू श्रम महँगा हो गया है। इन परिस्थितियों में अपनी किशोरी बेटी को ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ का गुर सिखाना होगा। सपनों की दुनिया से बाहर के कटु यथार्थों से भी उसे परिचित कराना होगा कि वय:संधिकाल में वह भावना के प्रवाह में बहकर अपनी अस्मिता के तटबंधों के प्रति बेखबर न रह जाए, उसके भीतर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की तमन्ना जागे।
प्रसिद्ध लेखिका आशारानी व्होरा ने अपनी इस कृति में लेखन की नवीनतम पत्र-शैली में किशोर वय के विशेष प्रशिक्षण के लिए किशोरियों के साथ उनके स्तर पर संवाद स्थापित किया है। उनकी शंकाओं, प्रश्नों एवं दुश्चिंताओं का समाधान एक माँ, एक अंतरंग सहेली और मार्ग-निर्देशिका के रूप में किया है। किशोरियों के हृदय में झाँककर, मित्रवत् उन्हें विश्वास में लेकर उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का बोध कराया है।
यह पुस्तक किशोरियों को उनकी देखभाल, सुरक्षा तथा जीवनोपयोगी शिक्षा देने के साथ ही उनका भरपूर मार्गदर्शन भी करेगी तथा उनमें निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाएगी।
श्रीमती आशारानी व्होरा ( जन्म : 7 अप्रैल, 1921) हिंदी की सुपरिचित लेखिका हैं । समाजशास्त्र में एम.ए. एवं हिंदी प्रभाकर श्रीमती व्होरा ने 1946 से 1964 तक महिला प्रशिक्षण तथा समाजसेवा के क्षेत्रों में सक्रिय रहने के बाद स्वतंत्र लेखन को ही पूर्णकालिक व्यवसाय बना लिया । हिंदी की लगभग! सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में अर्धशती से उनकी रचनाएँ छपती रही है । अब तक चार हजार से ऊपर रचनाएँ और नब्बे पुस्तकें प्रकाशित । प्रस्तुत पुस्तक उनके पंद्रह वर्षों के लंबे अध्ययन के बाद स्वतंत्रता-संग्राम संबंधी पुस्तक-माला का चौथा श्रद्धा-सुमन है, जो स्वतंत्रता स्वर्ण जयंती पर किशोर जीवन-बलिदानियों और शहीदों को अर्पित तथा वर्तमान नई पीढ़ी को समर्पित है ।
अनेक संस्थागत पुरस्कारों के अलावा ' रचना पुरस्कार ' कलकत्ता, ' अबिकाप्रसाद दिव्य पुरस्कार ' भोपाल, ' कृति पुरस्कार ' हिंदी अकादमी, दिल्ली, ' साहित्य भूषण सम्मान ' उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, ' गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार ' केंद्रीय हिंदी संस्थान ( मानव संसाधन विकास मंत्रालय) से सम्मानित । और हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की सर्वोच्च उपाधि ' साहित्य वाचस्पति ' से विभूषित श्रीमती व्होरा केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा एवं हिंदी अकादमी, । दिल्ली की सदस्य भी रह चुकी हैं ।
स्मृतिशेष : 21 दिसंबर, 2008