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समस्त जीवधारियों में केवल मानव ही ऐसा प्राणी है, जो पर्यावरण की क्षति के लिए उत्तरदायी है । मानव ने यह क्षमता भी औद्योगिक क्रांति के बाद हासिल की है ।
प्रौद्योगिकी के बेतहाशा इस्तेमाल से पर्यावरण को भारी क्षति पहुँचती है, पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ता है और प्रकृति का विनाश होता है । प्रकृति और संस्कृति में थोड़ा अंतर है । संस्कृति को मनुष्य बनाता है, जो कि पर्यावरण का अंग है । प्रकृति अब प्रचंड, निरीह और पवित्र नहीं रह गई है । अब इसे बनाया जा रहा है । इसका अतिक्रमण हो रहा है और इसमें जोड़-तोड़ किया जा रहा है । प्रकृति अब संस्कृति बन गई है ।
ऐसा देखा गया है कि सरकारें राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर अनाप-शनाप खर्च करती हैं; लेकिन जब व्यक्ति की सुरक्षा की बात आती है तो संसाधनों का रोना रोया जाता है । हम जिस विश्व में रहते हैं, वहाँ राष्ट्र यानी राज्य राष्ट्र जनों यानी नागरिकों से ज्यादा महत्त्व रखता है ।
प्रस्तुत पुस्तक में-संसार भर में सुरक्षा की जो अनदेखी की जा रही है, उसे नजरअंदाज किया जा रहा है- अनेक उदाहरणों के द्वारा जनमानस का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया गया है तथा इसके परिणामस्वरूप आनेवाले भयंकर खतरों से रू-बरू कराया गया है ।
सार रूप में कहा जा सकता है कि अगर एक समाज नर- संहार, संस्कृति- संहार, पारिस्थितिकीय संहार से मुक्त है तो वहाँ सुरक्षित समाज की कल्पना की जा सकती है ।
विशिष्ट समाज -विज्ञानी टी. के. उम्मन सन् 2002 में छब्बीस वर्षों की सेवा के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुए । वे इंटरनेशनल सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन और इंडियन सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे । अनेक विदेशी विश्व- विद्यालयों और शोध संस्थानों -में विजिटिंग प्रोफेसर/फेलो भी रहे । प्रो. उम्मन को भारतीय समाज -विज्ञानियों को दिए जानेवाले तीनों प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हैं । उनकी बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें प्रमुख हैं -सिटिजनशिप, नेशनेलिटी ऐंड एथनिसिटी; प्लूरलिज्म, इक्वैलिटी ऐंड आइडेंटिटी तथा क्राइसिस ऐंड कटेशन इन इंडियन सोसाइटी ।