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आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती भारत के प्रख्यात समाज सुधारक, चिंतक और देशभक्त थे। वे बचपन में ‘मूलशंकर’ नाम से जाने जाते थे। महर्षि ने सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़े शब्दों में खंडन किया और अपने महान् ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में उनका विश्लेषण किया। बचपन की एक घटना ने उन्हें उद्वेलित कर दिया और ईश-भक्ति से उनका मोह भंग हो गया, जब उन्होंने देखा कि भगवान् पर चढ़ा भोग चूहे खा रहे हैं, पर भगवान् उन्हें भगाने में अक्षम हैं।
जीवन-मृत्यु के प्रश्न उन्हें बचपन से ही मथने लगे थे। माता-पिता उनके विवाह की जुगत लगाने लगे तो सन् 1846 में उन्होंने गृह-त्याग किया और स्वामी विरजानंद को अपना गुरु बनाकर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। शिक्षा व सत्यार्थ पाकर उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और धर्म में व्याप्त बुराइयों का तार्किक खंडन किया। कहते हैं कि एक रहस्यमय घटनाक्रम में इन महान् समाज-सेवी, दार्शनिक और प्रखर वक्ता को पिसा काँच और विष देकर मार दिया गया।
समाज के सभी वर्गों के लिए समान रूप से पठनीय धर्मध्जवाहक स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रेरणाप्रद जीवनी।
जन्म : 26 अगस्त, 1965 आगरा (उ.प्र.)।
शिक्षा : स्नातकोत्तर, डी.जे., पी.जी.डी. (ड्रामा एंड स्टेज)।
लगभग पाँच सौ शैक्षिक पुस्तकें, उच्च प्रतियोगी परीक्षाओं, व्यक्तित्व विकास एवं सामान्य अभिरुचि आदि विषयों पर एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं हेतु लेख, फीचर, कविताएँ, कहानियाँ, लेख नाट्य लेखन। रेडियो, टेलीविजन, फिल्म की विविध विधाओं हेतु लेखन। आकाशवाणी से कहानियाँ, वार्ताएँ, परिचर्चाएँ प्रसारित।
संप्रति : चीफ एडीटर, रायसंस पब्लिशिंग हाउस प्रा. लि., दिल्ली।