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जब तनहाइयाँ बोलती हैं, आहटें वीरान गलियों में स़फर करती हैं, यादें अजनबी दस्तकों से लिपटकर रोने लगती हैं, बेमंज़िल की तलाश में मुसाफिर एक उम्र गुज़ार देता है, मुहब्बत किसी शर्त के ब़गैर रिश्तों को नई बुलन्दियाँ अता करती हैं, हाशिए पर बिखरे हुए आवारा ल़फ्ज़ों को एक पहचान मिल जाती है, रचनात्मकता की तेज़ लहरें पत्थरों में भी राह बना लेती है...
तब...
‘‘कुन्दन’’ है धड़कनों में
क्यूँ इक शोरे - कायनात
.कतरे में क्यूँ दिखा है
समन्दर बता मुझे
ख्वाब फिर .ख्वाब है
अच्छा है बुरा है, क्या है?
और वो दर्द ज़ो सीने में उठा है क्या है?
साहिल, दरिया, कश्ती, मुसाफिर,
तू़फाँ, मौजें और गिर्दाब
ये सब तो बस वह्मे-नज़र थे
सारा समंदर सूखा था
या फिर ये कि—
सब अपनी दूकान सजाए
बैठे हैं जब मेले में
अपनी जिंस का भाव बताने में
ऐसा शरमाना क्या
जैसे कई .खूबसूरत अशआर के साथ संवेदनाओं की अमिट आकृतियाँ बनाते हैं संजय कुमार ‘कुन्दन’। उनकी रचनाओं से गुज़रते हुए स़फर की कड़ी धूप नर्म हो जाती है... सूनी आँखों को नमी का अहसास होता है... आदमियों के जंगल में एक ऐसा हमस़फर मिल जाता है जो हमारे अन्दर की नाकामियों, बदनामियों रुसवाइयों से भी बेहद मुहब्बत करता है। ‘कुन्दन’ की शायरी नई दुनिया के इंसानों के टूटे बिखरे ख्वाबों की किरचियों को जोड़कर घने अंधेरे में भी रौशन ताबीर है।
ज़िन्दा आबादियों के लिए यह एक ज़रूरी संग्रह है।
कासिम .खुरशीद
जन्म : 7 जनवरी, 1955, फॉरबिसगंज (अररिया) बिहार।
प्रकाशन : ‘बेचैनियाँ’, ‘एक लड़का मिलने आता है’ (काव्य-संग्रह) तथा कहानियाँ प्रकाशित।
संप्रति : उप-निदेशक, शिक्षा विभाग, बिहार।
इ-मेल : sanjaykrkundan@gmail.com