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हमारे कर्जदाताओं को हमारी नीतियों की आलोचना करने का अवसर मिल गया। उनके अध्ययन दलों ने हमारी औद्योगिक नीति को ठोका-बजाया और उसे दोषपूर्ण करार दिया। हमारी अर्थव्यवस्था को बारीकी से जाँचा-परखा और उसे बीमारी की ओर अग्रसर बतलाया। कहा कि यह मूलत: कठोर नियंत्रण का ही दुष्परिणाम था कि अर्थव्यवस्था पनप नहीं पाई, उद्योग अपने पाँवों पर खड़े नहीं हो पाए। उन्होंने सलाह दी कि हम नियंत्रण की जगह उदारता से काम लें और अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के लिए उदारीकरण के च्यवनप्राश का सेवन करें। शर्तिया लाभ होगा।
मुझे यह सलाह कतई नागवार गुजरी। उदारता का पाठ भला हमें कोई क्या पढ़ाएगा! इतिहास गवाह है कि हम आदिकाल से (अथवा अनादि काल से जो भी सही हो) ही इस कदर उदार रहे हैं कि यदि सपने में भी किसी को कुछ देने का वचन दे दें तो जागने पर बाकायदा उसे खोजकर हम वह वस्तु उसे सादर सौंप देते हैं। ‘अतिथिदेवो भव’ की भावना हम पर इतनी हावी रही कि हम सदियों तक खिलजियों, लोदियों, मुगलों और अंग्रेजों द्वारा शासित रहे। लाखों याचक हमारी उदारता के चलते ही अपना पेट पालते हैं। फिर यह कैसे हो सकता है कि हम औद्योगिक क्षेत्र में उदार होने से चूक गए हों? —इसी संग्रह से
जन्म : मार्च 1941 में मध्य प्रदेश के सागर जिले के गाँव लुहारी में।
शिक्षा : इंजीनियरिंग कॉलेज, जबलपुर से सन् 1963 में विद्युत् अभियांत्रिकी में स्नातक।
सेवाकाल : जुलाई 1963 से अक्तूबर 1999 तक भिलाई इस्पात संयंत्र में विभिन्न विभागों में। ज्यादा समय राजहरा लौह अयस्क एवं नंदिनी लाइम स्टोन माइंस में।
लेखन : पहली व्यंग्य रचना ‘भगवान् का खत’ सन् 1965 में ‘सरिता’ के नवंबर द्वितीय अंक में प्रकाशित। सन् 1999 में भिलाई इस्पात संयंत्र की सेवा से निवृत्त होने के बाद लेखन में पुन: सक्रिय।