₹200
किसी भी विकलांग को देखकर हमारा हृदय उसके प्रति सहानुभूति से भर उठता है । मानसिक यातना, अंतर्द्वंद्व और परिस्थितियों से संघर्ष करता हर विकलांग इस सृष्टि का सबसे निरीह प्राणी है । उसके लिए विकलांगता जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है । उसके मन में भीतर-ही- भीतर कुंठा की ग्रंथियाँ बन जाती हैं और यह दुःख एवं विषाद उसे उम्र भर सालता रहता है । निराशा और हताशा के इस दमघोंटू वातावरण में वह किसी प्रकार साँस लेता-सा और जीवन जीता-सा नजर आता है । ऐसे में आवश्यकता है उसे याद दिलाने की एक अंधे होमर की, किसी अपंग कलाकार अथवा पैरकटे मूर्तिकार की; ताकि उसमें नवजीवन का संचार हो और वह कुछ ऐसा अद्भुत कर दिखाए कि प्रकृति का यह अभिशाप उसके लिए वरदान सिद्ध हो जाए ।
इस संकलन की हर कहानी विकलांगों की मनोग्रंथि को खोलने और उन्हें कुंठा तथा ग्लानि के अभिशाप रूपी अँधेरे से निकालकर नए प्रकाश में ला खड़ा करने में पूर्णत : सफल है ।
जन्म : सन् 1944, संभल ( उप्र.) ।
डॉ. अग्रवाल की पहली पुस्तक सन् 1964 में प्रकाशित हुई । तब से अनवरत साहित्य- साधना में रत आपके द्वारा लिखित एवं संपादित एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । आपने साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में लेखन-कार्य किया है । हिंदी गजल में आपकी सूक्ष्म और धारदार सोच को गंभीरता के साथ स्वीकार किया गया है । कहानी, एकांकी, व्यंग्य, ललित निबंध, कोश और बाल साहित्य के लेखन में संलग्न डॉ. अग्रवाल वर्तमान में वर्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिजनौर में हिंदी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष हैं । हिंदी शोध तथा संदर्भ साहित्य की दृष्टि से प्रकाशित उनके विशिष्ट ग्रंथों-' शोध संदर्भ ' ' सूर साहित्य संदर्भ ', ' हिंदी साहित्यकार संदर्भ कोश '-को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है ।
पुरस्कार-सम्मान : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा व्यंग्य कृति ' बाबू झोलानाथ ' (1998) तथा ' राजनीति में गिरगिटवाद ' (2002) पुरस्कृत, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली द्वारा ' मानवाधिकार : दशा और दिशा ' ( 1999) पर प्रथम पुरस्कार, ' आओ अतीत में चलें ' पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ का ' सूर पुरस्कार ' एवं डॉ. रतनलाल शर्मा स्मृति ट्रस्ट द्वारा प्रथम पुरस्कार । अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन, उज्जैन द्वारा सहस्राब्दी सम्मान ( 2000); अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानोपाधियाँ प्रदत्त ।