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छत्तीसगढ़ शताब्दियों से समन्वय, सद्भाव तथा श्रेष्ठ संस्कारों का क्षेत्र रहा है। माता कौसल्या की जन्मभूमि और श्रीराम के ननिहाल इस प्राचीन दक्षिण कोसल में भारतीय संस्कृति का धवल चरित्र विकसित हुआ। सिरपुर (प्राचीन श्रीपुर) में ताजा उत्खनन में प्राप्त छठवीं से आठवीं शताब्दी तक के पुरा-अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध और जैन उपासना पद्धतियों का अद्भुत सह-अस्तित्व रहा है। ऋषि-संस्कृति, अरण्य-संस्कृति, कृषि-संस्कृति और नागर सभ्यता यहाँ साथ-साथ पल्लवित होती रहीं। लंबी राजनीतिक उपेक्षा और अमानवीय शोषण के कारण प्रचुर नैसर्गिक संपदा का धनी यह अंचल पिछड़ेपन का शिकार बन गया। सही अर्थों में रत्नगर्भा इस धरती के निवासी घोर आर्थिक विपन्नता में जीवन व्यतीत करते रहे। भूख से अकाल मौतों का यहाँ कम-से-कम डेढ़ सौ वर्षों का काला इतिहास रहा। अन्याय का प्रतिकार करनेवाली जनता पर आजादी सत्ता द्वारा इसी क्षेत्र के राजनांदगाँव में किया गया था।
इसकी गणना देश के बीमारू प्रदेशों में होती रही। यहाँ के सहज और सरल निवासी निरंतर ठगे जाते रहे। परंतु एक दशक पूर्व छत्तीसगढ़ ने एक नई करवट बदली। इस दौरान इसने सबसे तेजी से बहुमुखी विकास कर रहे राज्य की पहचान बनाई है। इसकी खाद्य सुरक्षा गारंटी एक राष्ट्रीय मॉडल बन गई। महिला सशक्तीकरण में इस राज्य ने गत चार-पाँच वर्षों में एक लंबी छलाँग लगाई है। डॉ. रमन सिंह के संवेदनशील नेतृत्व में छत्तीसगढ़ देश के सिरमौर राज्य के रूप में उभर रहा है।
डॉ. रमन सिंह का जन्म 15 अक्तूबर, 1952 को एक ग्रामीण कृषक परिवार में हुआ। उनकी स्कूली शिक्षा छुईखदान, कवर्धा और राजनांदगाँव में हुई। उन्होंने ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में चिकित्सकों के अभाव को अनुभव किया था। अतः रायपुर के शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय में प्रवेश लिया और 1975 में आयुर्वेदिक मेडिसिन में बी.ए.एम.एस. की डिग्री प्राप्त की। उन दिनों शहरों में भी चिकित्सकों की खूब माँग थी और ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले युवा चिकित्सक भी नगरों में ही रहना पसंद करते थे। परंतु 23 वर्ष के युवा डॉ. रमन ने कस्बे में ही प्रैक्टिस शुरू की। चूँकि वे नाममात्र की फीस लेते थे और गरीबों का उपचार निःशुल्क करते थे, इसलिए वे गरीबों के डॉक्टर के रूप में लोकप्रिय रहे।
डॉ. रमन सिंह के व्यक्तित्व को तराशने में उनके पारिवारिक संस्कारों की बड़ी भूमिका रही। उनके पिता स्व. श्री विघ्नहरण सिंह ठाकुर की ख्याति कवर्धा के एक सफल और सदाशयी वकील के रूप में थी। मातुश्री स्व. श्रीमती सुधा सिंह को दयालुता की प्रतिमूर्ति माना जाता था। धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में उनकी गहन रुचि थी। भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों में उनकी अटूट आस्था थी। माता और पिता दोनों से शैशवकाल में प्राप्त संस्कारों ने डॉ. रमन सिंह के व्यक्तित्व का विकास किया। सुखद संयोग यह रहा कि उनकी सहधर्मिणी श्रीमती वीणा सिंह भी स्वभाव से सहज, सरल और विनम्र है। डॉ. रमन सिंह ने एक दशक के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ ने विकास के नए कीर्तिमान रचे हैं। अभी उनके सामने संभावनाओं का असीम आकाश है।