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जनसंघ की स्थापना के साथ ही उसमें पदार्पण करने वाले नानाजी देशमुख शायद स्वभाव से ही राजनीतिज्ञ थे। लगभग तीन दशक तक नानाजी देश के राजनैतिक पटल पर छाए रहे। जनसंघ में और उससे बाहर भी। पं. दीनदयाल उपाध्याय के पश्चात् जनसंघ में उनकी छवि एक अद्वितीय संगठक की बनी और पंडितजी के रहते हुए भी देश की राजनीति में एक ऐसे सर्वमान्य राजनेता की, जो अपनी विचारधारा से इतर अन्य दलों को भी साथ लेकर चलने की क्षमता रखता था।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे विचारकों और महानायकों को कभी नानाजी के साथ काम करने में संकोच नहीं हुआ बल्कि ये सब काफी हद तक नानाजी पर निर्भर हो गए थे। सिर्फ राजनैतिक दल ही नहीं, उद्योग व पत्रकारिता जगत् के महारथियों ने भी नानाजी की अद्भुत क्षमता को बार-बार अनुभव किया।
सन् 1977 में बलशाली दिखने वाली कांग्रेस की चूलें हिला देने वाले विलक्षण खेल की व्यूहरचना का श्रेय भी नानाजी की चाणक्य बुद्धि को ही जाता है। राजनीति के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के बावजूद उन्होंने सत्ता से दूर रहना भी सहजता से स्वीकार कर लिया। 60 बरस की उम्र होने पर सक्रिय राजनीति छोड़कर सामाजिक पुनर्रचना के काम में उन्होंने स्वयं को समर्पित कर देश के राजनीतिज्ञों के लिए एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया।
भारत के सार्वजनिक जीवन के तपस्वी कर्मयोगी नानाजी देशमुख राजनीति में रहकर भी जल में कमलपत्रवत् पवित्र रहने वाले एक निष्ठावान स्वयंसेवक थे। उनका जीवन समूचे देश की नई पीढ़ी को सतत देशभक्ति, समर्पण व सेवा की प्रेरणा देता रहेगा।
उनका जीवन कृतार्थ जीवन था, इसलिए उनके पार्थिव का दृष्टि से ओझल होना मात्र शोक की बात नहीं है, बल्कि हम सभी के लिए स्वयं कृतसंकल्पित होने की बात है। उनके जीवन का अनुकरण अपने जीवन में करना, यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
—मोहनराव भागवत
सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ