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कथा सम्राट् प्रेमचंद के समकालीन कथाकार विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ की सवा सौवीं जयंती पर साहित्य अकादेमी ने राष्ट्रीय संगोष्ठी कर उन्हें याद किया तो अच्छा लगा, क्योंकि सन् 1991 में जब उनकी जन्मशती पड़ी तो देश में कहीं भी कोई आयोजन नहीं हुआ—न तो हरियाणा में, जहाँ वे जनमे, न ही उत्तर प्रदेश में, जहाँ आखिरी साँस ली, जबकि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के सर्जक-संपादक रहे। चाहे कहानी हो, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य लेखन या ‘हिंदी मनोरंजन’ पत्रिका का संपादन, कौशिकजी हर जगह छाप छोड़ते रहे। चाहे स्त्री की पीड़ा का चित्रण हो, संयुक्त परिवार की समस्या, हिंदू-मुसलिम मामला या विश्वयुद्ध, कौशिकजी की कलम हर जगह बेमिसाल रही। उनकी कृतियों में विधागत वैविध्य तो है ही, उन्होंने प्रयोग भी खूब किए, जबकि उनके समय के समकालीन लेखक प्रयोग करने से बचते रहे।
सामाजिक सरोकारों और मानव के सूक्ष्म मनोभावों को कथारस में भिगोकर लिखनेवाले कथाकारों में विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने हिंदी कहानी को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस काल में हिंदी लेखन का प्रचलन कम था। लोग प्रायः उर्दू या अंग्रेजी में लिखते थे। उन्होंने तब हिंदी में लिखकर प्रशंसनीय काम किया। उनसे पहले जयशंकर प्रसाद और जी.पी. श्रीवास्तव हिंदी में लिख रहे। गुलेरी और प्रेमचंद उनके बाद आए। प्रेमचंद की तरह विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ ने भी तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। उन्हीं में से चुनी हुई उनकी लोकप्रिय कहानियाँ इस संग्रह में प्रस्तुत हैं।
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अनुक्रम
विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक होने का मतलब —Pgs. 5
1. न्याय —Pgs. 11
2. गुण ग्राहकता —Pgs. 23
3. गरीब-हृदय —Pgs. 34
4. प्रतिशोध —Pgs. 42
5. भाग्य-चक्र —Pgs. 53
6. लोकापवाद —Pgs. 65
7. भक्त —Pgs. 77
8. वंचना —Pgs. 85
9. बुद्धिबल —Pgs. 92
10. राजपथ —Pgs. 98
11. पहाड़ —Pgs. 105
12. युगधर्म —Pgs. 113
13. अप्रैल फूल —Pgs. 130
14. पीपल का पेड़ —Pgs. 145
15. समस्या —Pgs. 157
विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’
जन्म : 10 मई, 1891, अंबाला (हरियाणा)।
शिक्षा : क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर से।
रचना-संसार : कल्लोल, बंध्या, पेरिस की नर्तकी, मणिमाला, चित्रशाला, साध की होली, रक्षाबंधन, अप्रैल फूल (कहानी-संग्रह); माँ, भिखारिणी, संघर्ष (उपन्यास); दुबेजी की चिट्ठियाँ, ‘दुबेजी की डायरी’ (व्यंग्य-संग्रह); उपन्यासों में ‘माँ’ और ‘भिखारिणी’ तथा व्यंग्य-संग्रह ‘दुबेजी की चिट्ठियाँ’ तथा ‘दुबेजी की डायरी’ बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘हिंदी मनोरंजन’ का संपादन करते हुए हिंदी लेखकों की नई पीढ़ी तैयार की। इस रूप में वे अविस्मरणीय हिंदीसेवी भी रहे।
स्मृतिशेष : 10 दिसंबर, 1945, कानपुर (उ.प्र.)।