स्वामी विवेकानंद नवजागरण के पुरोधा थे। उनका चमत्कृत कर देनेवाला व्यक्तित्व, उनकी वाक्शैली और उनके ज्ञान ने भारतीय अध्यात्म एवं मानव-दर्शन को नए आयाम दिए।
मोक्ष की आकांक्षा से गृह-त्याग करनेवाले विवेकानंद ने व्यक्तिगत इच्छाओं को तिलांजलि देकर दीन-दुःखी और दरिद्र-नारायण की सेवा का व्रत ले लिया। उन्होंने पाखंड और आडंबरों का खंडन कर धर्म की सर्वमान्य व्याख्या प्रस्तुत की। इतना ही नहीं, दीन-हीन और गुलाम भारत को विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान किया।
ऐसे प्रखर तेजस्वी, आध्यात्मिक शिखर पुरुष की जीवन-गाथा उनकी अपनी जुबानी प्रस्तुत की है प्रसिद्ध बँगला लेखक श्री शंकर ने। अद्भुत प्रवाह और संयोजन के कारण यह आत्मकथा पठनीय तो है ही, प्रेरक और अनुकरणीय भी है।
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अनुक्रमणिका
प्राकथन — 7
1. मेरा बचपन — 19
2. श्रीरामकृष्ण से परिचय — 26
3. श्रीरामकृष्ण ही मेरे प्रभु — 56
4. आदि मठ बरानगर और मेरा परिव्राजक जीवन — 77
5. पारिवारिक मामले की विडंबना — 85
6. कुछ चिट्ठियाँ, कुछ बातचीत — 88
7. परिव्राजक का भारत-दर्शन — 99
8. विदेश यात्रा की तैयारी — 111
9. दैव आह्वान और विश्व धर्म सभा — 113
10. अमेरिका की राह में — 116
11. अब अमेरिका की ओर — 119
12. शिकागो, 2 अतूबर, 1893 — 127
13. धर्म महासभा में — 133
14. घटनाओं की घनघटा — 138
15. संग्राम संवाद — 141
16. भारत वापसी — 242
17. इस देश में मैं या करना चाहता हूँ — 277
18. पश्चिम में दूसरी बार — 296
19. फ्रांस — 319
20. मैं विश्वास करता हूँ — 327
21. विदा वेला की वाणी — 334
22. सखा के प्रति — 353
परिशिष्ट — 355
मंतव्यावली — 357
तथ्य सूत्र — 358
शंकर
शंकर (मणि शंकर मुखर्जी) बांग्ला के सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले उपन्यासकारों में से हैं। ‘चौरंगी’ उनकी अब तक की सबसे सफल पुस्तक है, जिसका हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अनुवाद हो चुका है; साथ ही सन् 1968 में इस पर बांग्ला में फिल्म भी बन चुकी है। ‘सीमाबद्ध’ और ‘जन अरण्य’ उनके ऐसे उपन्यास हैं, जिन पर सत्यजित रे ने फिल्में बनाईं। संप्रति कोलकाता में निवास।