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‘यायावरी आँखों से’
समाज में किसी को कुछ देने पर वह बदले में अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार कुछ अवश्य देता है। वह देने और लेने वाले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-तालाब या रिश्ते-नाते कुछ भी हो सकते हैं। समाज में अहर्निश घूमती हुई इस आदान-प्रदान से ही आनंद प्राप्त करनेवाली यायावर लेखिका पिछले तीस वर्षों से निरंतर घूम रही हैं। सभी बड़ी-छोटी यात्राओं में मिलनेवालों से उन्हें कुछ-न-कुछ मिलता रहा। वे एक चिड़िया की भूमिका में हैं। एक खेत का दाना दूसरे खेत में डालतीं। परंतु खेत में एक दाना डालिए, तो खेत सहस्र दाने देता है। पूरब का दाना पश्चिम, उत्तर का दाना दक्षिण में डालती रहीं। उनसे फिर अधिक दाना पाती रहीं। और इस प्रक्रिया में जो कुछ व्यक्ति और समाज से मिला, उन्हीं अनुभवों को उन्होंने लेख के रूप में संकलित किया ‘यायावरी आँखों से’ में। ये लघु लेख हमारे समाज में हर पग पर बिखरे सनातन चिंतन, व्यवहार और ज्ञान, जो पगडंडी से राजपथ पर बिखरे हैं, जीवन को समझने और जीने की राह दिखाते सूत्र हैं।
मृदुला सिन्हा
27 नवंबर, 1942 (विवाह पंचमी), छपरा गाँव (बिहार) के एक मध्यम परिवार में जन्म। गाँव के प्रथम शिक्षित पिता की अंतिम संतान। बड़ों की गोद और कंधों से उतरकर पिताजी के टमटम, रिक्शा पर सवारी, आठ वर्ष की उम्र में छात्रावासीय विद्यालय में प्रवेश। 16 वर्ष की आयु में ससुराल पहुँचकर बैलगाड़ी से यात्रा, पति के मंत्री बनने पर 1971 में पहली बार हवाई जहाज की सवारी। 1964 से लेखन प्रारंभ। 1956-57 से प्रारंभ हुई लेखनी की यात्रा कभी रुकती, कभी थमती रही। 1977 में पहली कहानी कादंबिनी' पत्रिका में छपी। तब से लेखनी भी सक्रिय हो गई। विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। गाँव-गरीब की कहानियाँ हैं तो राजघरानों की भी। रधिया की कहानी है तो रजिया और मैरी की भी। लेखनी ने सीता, सावित्री, मंदोदरी के जीवन को खंगाला है, उनमें से आधुनिक बेटियों के लिए जीवन-संबल हूँढ़ा है तो जल, थल और नभ पर पाँव रख रही आज की ओजस्विनियों की गाथाएँ भी हैं।
लोकसंस्कारों और लोकसाहित्य में स्त्री की शक्ति-सामर्थ्य ढूँढ़ती लेखनी उनमें भारतीय संस्कृति के अथाह सूत्र पाकर धन्य-धन्य हुई है। लेखिका अपनी जीवन-यात्रा पगडंडी से प्रारंभ करके आज गोवा के राजभवन में पहुँची हैं।