व्यवस्था-परिवर्तन या समाज-परिवर्तन की प्रत्येक चेष्टा, ईश्वरेच्छा की उपेक्षा कर असफल और दिशाहीन हो जाने के लिए अभिशप्त है।
यह कृति समाज-परिवर्तन की दिशा में सक्रिय विचारों का, उनके विकसित होते गए परिप्रेक्ष्य में संयोजन मात्र है। इन विचारों का स्रोत महापुरुषों की वे शिक्षाएँ हैं, जिनमें एक नए मनुष्य के सृजन को संभव बनाने-वाले कारक-तत्त्वों का उद्घाटन हुआ है। समग्र परिवर्तन का आह्वान करती ये शिक्षाएँ मनुष्य और समाज के आमूल रूपांतरण की दिशा का बोध कराने वाली हैं। इन सबके केंद्र में वर्तमान जीवन है। युद्ध, विखंडन, स्पर्धा, हिंसा, स्वार्थ और लोलुपता से भरी दुनिया को अस्वीकार करने का अर्थ है—मानस एवं हृदय के आमूलचूल परिवर्तन की दिशा में नए सिरे से विचार करना। इस प्रकार के विचारों को सुव्यवस्थित रूप में सामने लाने का यह विनम्र प्रयास है। इस क्रम में रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, श्रीअरविंद, रमण महर्षि, आचार्य विनोबा भावे, जे. कृष्णमूर्ति, रामनंदनजी प्रभृति महापुरुषों की शिक्षाओं को यहाँ विशेष रूप में स्थान मिला है।
नवजागरण का मार्ग प्रशस्त करनेवाली सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिए समान रूप से पठनीय पुस्तक।
दरभंगा (बिहार) में जनमे (5 मई, 1964 ई.) राजेश की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने गृह नगर में ही हुई। हिंदी में एम.ए.और फिर बी.एच.यू.से पी-एच.डी.(जे.आर.एफ.)। बचपन से ही क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी और जीवन के उत्तरार्द्ध में महान् साधक श्री रामनंदन मिश्रजी के स्नेह-सान्निध्य का सौभाग्य मिला। बाबूजी (श्री रामनंदन मिश्रजी) ने समाज-परिवर्तन और विश्व-कल्याण का महान् लक्ष्य सामने रखा। उन्हीं के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक साधना का शुभारंभ भी हुआ। सन् 2002 से भिक्षावृत्ति का आश्रय ले, झारखंड राज्य के गिरिडीह जिले के सरिया नामक स्थान में निवास।