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"वैशवीकरण एवं बाजारवाद ने हमारी आस्था को सिरे से समाप्त करने का काम किया है । बस हमारे भीतर छोड़ा है तो वस्तुवाद का जहर, जिसके कारण हम मनुष्य से मशीनों में परिवर्तित होते जा रहे हैं । जीवंतता का आभास धीरे-धीरे लुप्त होता चला जा रहा है, जो कि एक अत्यधिक विचारणीय प्रश्न है।
हमें विकास की धारा से अछूता नहीं रहना चाहिए, परंतु विकास की कीमत हम अपने यथार्थ, अपने अस्तित्व के मूल्य से नहीं चुका सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक 'जीवन का गणित ' में इस विकासवादी समाज में बढ़ती जा रही विसंगतियों और धीरे-धीरे हमारी संस्कृति पर गहराते संकट को दिखलाने का प्रयास किया गया है ।
पाठकों के मन में प्रशन आएगा कि इस पुस्तक का नाम ' जीवन का गणित ' क्यों रखा है ? वैसे तो इस पुस्तक का एक लेख ' जीवन के गणित ' नाम से प्रकाशित हुआ है, परंतु इस पुस्तक में लेखिका ने अपने जीवन की गुल्लक में से छोटे-बड़े लम्हे समेटे हैं, जो कि वास्तविकता में उनके ही नहीं, इस पुस्तक को पढ़ने वाले हर पाठक को अपने जीवन की घटनाओं से जोड़ेंगे।"
आम नारी-जीवन की त्रासदियों को सहज ही कहानी का रूप देने में कुशल मेहरुन्निसा परवेज का जन्म मध्य प्रदेश के बालाघाट के बहेला ग्राम में 10 दिसंबर, 1944 को हुआ । इनकी पहली कहानी 1963 में साप्ताहिक ' धर्मयुग ' में प्रकाशित हुई । तब से निरंतर उपन्यास एवं कहानियाँ लिख रही हैं । इनकी रचनाओं में आदिवासी जीवन की समस्याएँ सामान्य जीवन के अभाव और नारी-जीवन की दयनीयता की मुखर उाभिव्यक्ति हुई है । इनको ' साहित्य भूषण सम्मान ' (1995), ' महाराजा वीरसिंह जू देव पुरस्कार ' (1980), ' सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार ' (1995) आदि सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है । कई रचनाओं के अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं । इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं- आँखों की दहलीज, कोरजा, अकेला पलाश (उपन्यास); आदम और हब्बा, टहनियों पर धूप, गलत पुरुष,फाल्गुनी , अंतिम पढ़ाई, सोने का बेसर, अयोध्या से वापसी, एक और सैलाब, कोई नहीं, कानी बोट, ढहता कुतुबमीनार, रिश्ते, अम्मा, समर (सभी कहानी संग्रह) ।